इंदर कोटवानी
कोई खुशी नहीं है।कहने को गम भी नहीं है।एक चिंता है।बस,एक ही..कि जीतेगा कौन? किसकी सरकार बनेगी?चाय की चुस्कियों के बीच इन दिनों बस यही एक चर्चा चल रही है।
छत्तीसगढ़ सहित चार राज्यों में चुनाव हुए एक पखवाड़े से भी अधिक का समय बीत चुका है..। मतदाताओं ने ईवीएम में प्रत्याशियों के भाग्य को कैद कर दिया है।बावजूद लोगो पर चढ़ी चुनावी खुमारी उतरी नही है, या कहा जाए कि चुनावी माहौल थमा नहीं है.। पहले लोग चौक चौराहों पर बैठकर प्रत्याशी को लेकर बात करते थे.. फिर मतदान को लेकर बात होती रही..और अब वही लोग गलियों में चौराहों पर बैठकों में एक ही बात कर रहे हैं.कौन जीतेगा ? इसी बात पर.बात इतनी बढ़ जाती है कि.देखते ही देखते आपस में झगड़ा शुरू हो जाता हैं..।
हालांकि इन नेताओं से उनका कोई लेना-देना नहीं होता फिर भी लगे रहते हैं हिसाब लगाने में.. जानते हैं कि उन्हें हमारी पड़ी ही नहीं है लेकिन बात इन्हीं की करते हैं। फिर सोचने में आता है कि,जब दिन रात उनकी जीत हार का इतना हिसाब लगाते फिरते हैं तो कुछ तो चाहत रहती ही है..खैर. यह हुई नेताओं की बात।जब जीतेंगे हमारी तरफ से मुंह मोड़ लेंगे। हमेशा से ऐसा होता आया है आगे भी होता रहेगा। क्यों कि हमें अपनी ताकत का अंदाजा नहीं है।
समय ऐसा ही गुजरता जाएगा क्यों कि इस उम्र तक इस जमाने में बहुत से सूरज बुझ चुके हैं. सैकड़ो चांद सो गए!
बहरहाल,हाल जो भी हो. नेता और आम आदमी का रिश्ता जो वर्षों से चला आ रहा है. ऐसा ही रहना है। सरकारी आती-जाती रहेगी। बदलती रहेगी या जमी रहेगी। चीटियों का रोना आखिर किसने सुना है?
फिलहाल ठंड के दिन है. होठ बड़बड़ा रहे हैं. कोई खुशी नहीं है। कहने को गम भी नहीं है।एक चिंता है ।बस एक ही ..कि जीतेगा कौन? किसकी सरकार बनेगी? कौन उसे पटकनी देगा जो हम सबको पटकनी देता फिरता है ? वो हारेगा या नहीं. जो हमारी चिंताओं. समस्याओं को किसी बदबूदार कूड़े में फेंकते रहता है?
चाय की चुस्कियां और पकोड़ों की गर्मी के बीच यही चर्चा चल रही है।तीन दिसंबर तक हमारे पास और कोई काम ही कहां है?