निर्मल मन के द्वारा ही भगवान की प्राप्ति संभव है.आज सभी सुख शांति और समृद्धि की इच्छा में नाना प्रकार के यतन करते हैं.लेकिन लोग यह भूल गए हैं कि यह सब प्राप्त करने के लिए सत मार्ग पर चलना एवं मन को निर्मल बनाना पड़ेगा. बिना मन को निर्मल बनाएं व बिना सत मार्ग का अनुशरण किए कुछ भी संभव नहीं है. यह दुनिया बड़ा भूल-भुलैया है और इसके चकाचौंध में जो भी फंस जाता है उसका मानव जन्म निरर्थक हो जाता है. उक्त बाते ग्राम निनवा मे चल रही भागवत कथा के चौथे दिन भागवत आचार्य पंडित संजय शर्मा निनवा वाले ने कही.
उन्होंने गजेंद्र मोक्ष की कथा बताते हुए कहा कि त्रिकूट पर्वत मे स्थित सरोवर मे एक गजेंद्र अपने परिवार वालों के साथ जल पीने के लिए गया. जब गजेंद्र जल पीने के लिए सरोवर मे गया तो एक ग्राह ( मगर) ने गजेंद्र के पैर को पकडा और जल के अंदर घसीटने लगा. सहायता के लिए गजेंद्र ने अपने परिवार वालों को आवाज लगाई लेकिन कोई भी सहायता करने नहीं आया. अंत समय मे गजेंद्र ने निर्बल होकर सरोवर का एक पुष्प लेकर भगवान को सहायता के लिए पुकार लगाया, तब भगवान नारायण तुरंत ही सहायता के लिए दौड़ पडे. और सरोवर मे पहुच कर अपने चक्र से ग्राह का वध किया.
इस कथा का सार बताते हुए आचार्य शर्मा ने बताया कि यह संसार स्वार्थ और लोभ से भरा हुआ है. मुसीबत के समय दुनिया मे कोई साथ नहीं देता, केवल अपने स्वार्थ और लोभ करने के लिए मनुष्य एक दूसरे से संबंध बनाए रखते है. ईश्वर को जब निर्मल मन से निर्बल होकर पुकार किया जाये तो ईश्वर किसी ना किसी नर रूप उस जीव की सहायता करने जरूर आते है. कथावाचक ने कहा कि मन को निर्मल बनाने के बाद ही ईश्वर की भी प्राप्ति होती है. ईश्वर उन्हीं को दर्शन देते हैं जिसके अंदर छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, झूठ-कपट आदि नहीं होते हैं.
मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है। मन से मान लिया जाये तो दुख और यदि मन से किसी भी प्रकार के दुख को निकाल दिया जाये तो सुख ही सुख है। यदि आप मन को एकाग्र कर शांति का अनुभव करें तो आपका निर्मल मन आपको चिरशान्ति प्रदान करेगा और आपको लगेगा कि दुनिया की सबसे बड़ी दौलत आपको मिल गई, जिस सम्पत्ति को हम दुनिया में खोज रहे थे, वह हमें अपने अंदर ही मिल गई। चैन, सुकून, शांति बाहर नहीं वह तो हमारे अंदर ही थी लेकिन हम मृगतृष्णा में भटक कर उसे बाहर खोज रहे थे। मन के शांत होने से अब आनंद ही आनंद है। अब समस्त सुखों का संगम हमारे मन में ही हो गया है और हमारा शुद्ध व शांत मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है। ज्ञान-कर्म और भक्ति का परस्पर सम्बन्ध है। इसलिये मानव जीवन में तीनों का सामंजस्य अवश्य होना चाहिये। यदि व्यक्ति कर्म-ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाए रखे तो उसका जीवन व्यवस्थित हो जाता है।इस संसार में सफलता उन्हीं को मिलती है। जो निष्ठापूर्वक कर्मों को सम्पन्न करता है और उसके सभी कर्म बिना फल की इच्छा से प्रभु को समर्पित होते हैं। ऐसा समर्पण ही भक्ति का रूप लेता है और फिर व्यक्ति का परमात्म भक्ति में खोये हुये विशुद्ध मन में ही सभी तीर्थों का वास हो जाता है। आगे आचार्य जी वामन अवतार की कथा बतायी जिसे सुनकर सभी श्रोता गण रोमांचित हो उठे. उन्होंने बताया कि भगवान नारायण ने वामन का अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग धरती का दान माँगकर देवताओ का कार्य सिद्ध किया. अंत मे भगवान उनकी दानशीलता से प्रसन्न होकर राजा बलि को सूतल लोक का राजा बना दिया. आचार्य जी ने दान की महिमा बताते हुए कहा कलयुग मे दान करने का बहुत महत्व बताया गया है. उन्होंने बताया केवल सुपात्र को दान देना चाहिए, कुपात्र को नहीं. कुपात्र को दान देने के बाद वह उसका दुरूपयोग करेगा. फिर दिए का दान का पूर्ण फल नहीं मिल पाता.