गुजरात चुनाव में एकतरफा जीत के बाद हिमाचल व दिल्ली के साथ अन्य जगहों पर हुए चुनाव में मिली शिकस्त के बाद भाजपा में रणनीतिकारों के कान खड़े हो गए हैं। चूंकि साल भर के भीतर ही राजस्थान,मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्यों में चुनाव होना है। वैसे तो पिछले विधानसभा में इन तीनों ही राज्यों में कांग्रेस को सत्ता मिली थी लेकिन मध्यप्रदेश में आंतरिक कलह ने भाजपा की फिर ताजपोशी करा दी। इस बार भी भाजपा के लिए इन तीनों ही राज्यों में बड़ी चुनौती साफ नजर आ रही है।
जैसा कि बताया जा रहा है कि मध्यप्रदेश में इंटरनल सर्वे और इंटेलीजेंस की रिपोर्ट संकेत दे रहे है कि अगले विधानसभा चुनाव में एंटी इनकम्बेंसी से बड़ा नुकसान होने वाला है। वहीं छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति जस की तस बनी हुई है। राजस्थान में कुछ संभावना बन रही है लेकिन जरा सी चूक यहां भी भारी पड़ सकती है। इसलिए क्या बचे समय में गुजरात फार्मूला लागू कर कुर्सी हासिल की जा सकती हैं,गंभीर मंथन शुरू हो गया है। सभी प्रदेशों के अध्यक्ष और संगठन मंत्रियों की बैठक एक बार हो चुकी है जल्द ही दूसरी बैठक होने वाली है। राजस्थान में भी हिमाचल जैसी स्थिति अब तक रही है,सत्ता परिवर्तन का। यही सबसे बड़ी उम्मीद है।
भाजपा के सूत्र बताते हैं कि 2023 में होने वाले सभी विधानसभा चुनाव पार्टी सामूहिक नेतृत्व में लड़ेगी। किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री का नाम घोषित नहीं किया जाएगा। यह तो तयशुदा बात है कि गुजरात में मोदी का प्रभाव बहुत ज्यादा है लेकिन इन राज्यों में उतना नहीं। इसीलिए विधानसभा चुनाव में नए पैरामीटर पर टिकट बांटे जाएंगे। टिकट वितरण में नए चेहरों को प्राथमिकता दिया जायेगा। जिन विधायकों के टिकट काटे जाएंगे, उनसे भी वन-टू-वन चर्चा की जाएगी ताकि भितरघात के हालात नहीं बनें। पिछले चुनाव की एक और बड़ी बात पर नजर है वह यह कि जहां विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोट नहीं मिला, वहीं लोकसभा चुनाव में मोदी को बम्पर सीटें दी। इसके बावजूद अभी सबसे अहम सवाल यही है कि गुजरात के मॉडल को इन प्रदेशों में पार्टी कैसे लागू करेगी?
छत्तीसगढ़ के नजरिये से देखें तो तमाम प्रयास के बाद भी चार साल में हुए पांचों उपचुनाव भाजपा हार चुकी है। तब जबकि प्रदेश अध्यक्ष,प्रदेश प्रभारी से लेकर नेता प्रतिपक्ष तक बदल चुके हैं। इंटरनल सर्वे ने यहां भी बता दिया है कि पुराने चेहरों पर दांव लगाना पार्टी को फिर से भारी पड़ सकता है। वहीं भूपेश बघेल के खेत,खलिहान,गांव और किसान की सर्वोच्च प्राथमिकता की काट भाजपा चार साल में भी नहीं ढूंढ पायी है,और इन्ही के बल पर कांग्रेस दूसरी पारी को लेकर निश्ंिचत है। सत्ता व संगठन में थोड़ी बहुत खटपट के बावजूद सब कुछ ठीकठाक है,जबकि भाजपा में कहीं पर भी सामूहिकता नहीं दिख रही है। हारे हुए तमाम लोग अब जाकर सक्रिय हो रहे हैं। तीसरी शक्ति यहां ज्यादा प्रभावकारी नहीं है इसलिए अधिकांश सीटों पर सीधा मुकाबला होगा। इन तमाम संभावनाओं के बीच भाजपा के रणनीतिकार थाह ले रहे हैं कि क्या कुछ संभव हो सकता है? लेकिन गुजरात की तुलना में इन तीन प्रमुख प्रदेशों में राजनीतिक परिस्थितियां अलग-अलग है इसलिए गुजरात फार्मूला बनाना या लागू करना कितना कारगर होगा ?