
तिल्दा नेवरा -समीपस्थ ग्राम गैतरा में चल रही भागवत कथा के अंतिम दिन गुरुवार को कथा वाचक आचार्य नंदकुमार शर्मा निनवा वाले ने कहा कि जब व्यक्ति धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसके रास्ते में कई अड़चने आती है, मगर इससे मनुष्य को कभी घबराना नहीं चाहिए। उन्होंने कहा कि क्लब व पाíटयों में ले जाने वाले बहुत लोग होते हैं पर सत्संग में लेकर जाने वालों की संख्या कम होती है।जब तक आप भगवान के चरणों से नहीं जुड़ जाते तब तक आपका कल्याण नहीं होगा। कोई भी मनुष्य चाहे अरबों खरबों का मालिक हो, उसके पास खूब बल और सौंदर्य हो मगर जबतक उसके मन में भगवान की भक्ति नहीं होगी तब तक समझें उसके पास कुछ नहीं है। महराज ने कहारावण के पास सब कुछ था पर राम की भक्ति नहीं थी।
जीवन में संस्कारों के महत्व का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि अपनी संतान को संस्कार देना प्रत्येक माता-पिता का प्रथम कर्तव्य है। नही तो उसका संतान दुर्योधन और दु:शासन के समान हो जाएगा। कुसंस्कारी संतान स्त्री का अपमान और बुजुर्गों का उपहास करते हैं। परिवार बड़ा हो न हो इंसान का दिल बड़ा होना चाहिए। उन्होंने सभी को अपने आय का एक छोटा हिस्सा धाíमक कार्य व जरूरतमंदों में खर्च करने की सलाह दी।. आगे कहा कि जो मनुष्य बिना कर्मफल की इच्छा किए हुए सत्कर्म करता है, वही मनुष्य योगी है. जो मनुष्य सत्कर्म नहीं करता, वह संत कहलाने योग्य नहीं है. समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नही मिलता है.मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। वस्तुत: मनुष्य के द्वारा किया गया कर्म ही प्रारब्ध बनता है भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्वयं कहते हैं कि कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बगैर नहीं रह सकता है। आज के परिवेश में विचार किए जाने की आवश्यकता यह है कि क्या हम शत-प्रतिक्षण, दिन-प्रतिदिन जो कर्म कर रहे हैं, वह हमें जीवन में ऊंचाई की तरफ ले जा रहे हैं या फिर इस संदर्भ में कहीं लापरवाही हमें नीचे तो नहीं गिरा रही है? हम अच्छे कर्मो के सहारे स्वर्ग में जा सकते हैं और बुरे के द्वारा नरक में। मानव के पास ही प्रभु ने शक्ति प्रदान की है कि अपने अच्छे कर्मो के सहारे वह जीवन नैया को पार लगा सके।
आचार्य ने दान की महिमा बताते हुए कहा कि समय-समय पर मनुष्य को दान करते रहना चाहिए. दान करने से धन की शुद्धता भी होती है. उन्होंने कहा मनुष्य को अपनी कमाई का कुछ दान पुण्य और परमार्थ के कार्य मे लगाना चाहिए. दान करने से मनुष्य का सत्कर्म भी पूरा होता है. उन्होंने बताया कि धर्म के चार चरण होते है – सत्य, पवित्रता, दया और दान. कलयुग मे दान महिमा बहुत अधिक बतायी गयी है. उन्होंने कहा कि दान भी किसी योग्य और सुपात्र व्यक्ति को करना चाहिए. कुपात्र को दान देने से कोई मतलब का नहीं रह जाता क्यों कि कुपात्र व्यक्ति दान पाने के बाद उसका दुरुपयोग करता है. आगे राजा नृग की कथा मे बताया कि राजा दान अनेकों करता था लेकिन दान करते समय उनके मन मे अभिमान रहता था कि मेरे समान दानी कोई नहीं. जिसके परिणाम स्वरुप राजा को गिरगिट शरीर प्राप्त हुआ. आचार्य जी ने कहा कि दान करते समय कभी भी अभिमान को जगह नहीं देनी चाहिए नहीं तो दान का पुण्य फल नष्ट हो जाता है गुरु की महिमा बताते हुए कहा कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन मे गुरु अवश्य बनाना चाहिए. क्यों कि गुरु ही जीव को ईश्वर की सत्ता और सत्य मार्ग का बोध कराता है. उन्होंने कहा सच्चे सद्गुरु भगवान की प्रतिमूर्ति हैं। जब भगवान को पथ- प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया जाता है, तब उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया जाता है। श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता ही मनुष्य का सही पथ-प्रदर्शन करती और पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचाती है। यह गुरु ही है, जो शिष्यों में सुसंस्कार डालता और आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर करता है। उनके चरित्र और समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करता है। गुरु की परिक्षा कभी नहीं लेनी चाहिए.. यदि मन मे कोई शंका है तो जिज्ञासु बनकर समस्या का समाधान पाना चाहिए. किसी भी परिस्थिति में गुरु की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए.